Monday 23 November 2015

दो कविताएँ

1.


अपने कर्मों की सजा पाता हूँ
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अपने कर्मो की सजा पाता हूँ
खेतो को बेच कर पछताता हूँ

ना सब्ज़ी मेँ वो सुगंध है,
ना रोटी मेँ वो खुश्बु
होटलों मेँ अब जानवरों की तरह, घास पूस चबाता हूँ
अपने कर्मो की सजा पाता हूँ

ना वो हरी वादियाँ है,
ना वो हरे खलिहान
अब बस टीवी पर हरियाली देख मुस्कुराता हूँ
अपने कर्मो की सजा पाता हूँ

दूध तो अब दिखता नहीँ,
और घी का तो पूछिये मत
कई सालों से पावड़र और डालडा से चलाता हूँ
अपने कर्मो की सजा पाता हूँ

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2.


मैं चिनगारी जला रहा हूँ
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जोर जोर से चिल्ला रहा हूँ.
बुनियाद हिला रहा हूँ
आग भड़के ना भड़के
मैं चिनगारी  जला रहा हूँ.........

होगा कहीं तो उजाला,
भड़केगा कहीं तो शोला
मैं अंगार पे जमी राख हिला रहा हूँ
मैं चिनगारी जला रहा हूँ...........

बुजदिलों मेँ कोई तो वीर होगा,
सरकंडो में कोई तो तीर होगा.
मैं खोई हुई मंजिल दिखा रहा हूँ.
मैं चिनगारी जला रहा हूँ.............

बदलेगा मुकद्दर तु बनेगा सिकंदर
शांति के पीछे है बडा बवंडर
मैं भूली हुई शक्ति याद दिला रहा हूँ
मैं चिनगारी जला रहा हूँ............

मुश्किल रास्तों पर चलना सीख ले
दुश्मन पे पलटवार करना सीख ले
मैं तेरी ढाल बनने को तिलमिला रहा हूँ
मैं चिनगारी जला रहा हूँ............

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