Monday 30 November 2015

कविता- मुझे अब कहना होगा अलविदा

मुझे अब कहना होगा अलविदा


मुझे कहना होगा कि
अब मुझे जाना होगा
वापस अपने खेतों में
पहाडों में
मैदानो में
अपने गांव की अपनी गलियों में
अपने घर के अपने आंगन में

अपने रेतीले रेगिस्तानी समंदरो में फिर तैरने
और सुने पहाड़ों के सुखे झरनों को छुने
तालाब के पानी में छिपे चंद्रमा को अपनी हथेली में भरकर
गले से घटककर पी लेने

और भेड के झुंड का बनने चरवाहा
फिर खुले मैदानों में दौड लगाने
किसी खरगोश के साथ
और किसी छोटी सी पहाडी पर खडे होकर
बहती हवा से टकराने

नंगा होकर कूदने उसी  तालाब में
जहाँ नहाती थी कभी गाँव की हर लडकी नंगी
और जब मैं डुबकी लगाकर छु लेता था उनकी नंगी जांदे

मुझे जाना होगा
उस हर बुड्ढी माँ के आँचल से लिपटने
जिसने
मुझमें कभी किसी रोज
देखा था अपना बच्चा

और जाना होगा
उन  सब आंखों को चुमने
जिसने कभी बहाये थे आंसू  मुझे अपना प्रियतम मानकर
और उन सब बचपन के साथियों को भी गले लगाने
जिन्होंने सिखाया था खेल कबड्डी का
कभी हारकर, कभी जीतकर

मुझे जाना होगा
फिर उस मिट्टी की खुशबू सूंघने
जिस मिट्टी से बना हूँ मैं
और फिर एक दिन जिसमें वापस मिल जाऊंगा
उस जमीं के लिए एक बार फिर लडने
जिसे बचपन में अपना खेत मानकर भिड गया था एक जंगली सुअर से

मुझे जाना होगा
उस कंधों का शुक्रिया कहने भी
जिस पर बैठकर
मैंनें कभी दुनिया को बहुत दूर तक देखा था
और
और उस गोद में फिर सोने
जिसमें ममता की चादर मुझे ढक लेती थी
और लिपटकर बरसता था मुझपर प्यार सदैव जहाँ

कभी मैं आया था
शहरों की चकाचौंध रोशनी देखकर
इमारती ख्याल बांधे
लिसी काली सडकों और उन पर सरकती, चमचमाती गाडियों से आकर्षित होकर
बडे बडे बंगलों की चाहत लेकर
फैशनेबल कपडों और उससे आती डियोडेरेंट की मदमाती खुशबू का आशिक बनकर
सफेद, मुलायम और लचीले जिस्मों को भोगने का लालच लेकर
और साथ में लाया था
कई ख्वाब, कई अरमान, साहस और....................

मैंने चमकते शहर में बनाये थे कुछ दोस्त
सडक के किनारे रहता था शंकर
जिसने पहले दिन दी थी सोने के लिए जगह
और कुछ कंबल भी ओढने
और वोह मंदिर के सामने बैठने वाला बुड्ढा चाचा खेताराम
जिसने पैसे दिए थे चाय पानी के लिए और खाना भी
और और..... वोह बंगाली रानी
जो छुप छुप कर देती थी मिठाईयाँ
अपने भिख के पैसों से लाकर

कूछ और भी थे
जो मेरी कविताएं सुनकर खुश होते थे
और कभी कभी हँसकर कहते थे;"बहुत अच्छी कविता... वाह बेटे वाह. .."
फिर बेटे को भूलकर वोह  अपने अपने घर चले जाते थे

अब यहाँ महसूस होती है घुटन
और रिश्ते सारे हो जैसे झूठे
सड कर बास मारते इन शहरी रिश्तों से
ऊब गया हूँ मैं अब
जैसे कि यहाँ का हर चेहरा फरेबी है और रिश्ता कमजोर
और पुरा शहर बन गया है एक कूडे का बासी ढेर

मुझे  कहना होगा कि
अब मुझे जाना होगा
मुझे अब कहना होगा
अलविदा ।

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