Monday 30 November 2015

प्रिय पिता और एक कविता

प्रिय पिता


प्रिय पिता
काश तुममें होती
कुछ और ज्यादा हिंमत
तुम खुद को जाति से परे रख पाते
(मुझे पता है कि तुम मूछों पर ताव देकर राजपूत होने पर अपना सर थोडा उंचा रखते थे)
और स्वयं को धर्म से दूर रखकर
अपने आप को केवल मानव कहलाते तुम
(माना कि तुम भाल पर तिलक लगाकर हिन्दू होने पर इठलाते थे)

पिता
काश कि तुम
आसमान छूना चाहती स्त्रीयों के
रक्षक बनते
पथ दर्शक बनते

और पिता तुम
तलवार, बंदूक की जगह हल उठाते
जाकर खेतों में बहाते पसीना
अपने वीर्यवान देह की श्रमशक्ति से
धरती की छाती से अधिक से अधिक धान उगाते

और यद्यपि फिर भी तलवार, बंदूक चलाने का मन करता तुम्हारा
तो शोषितों के न्याय के लिए
अत्याचारीयों के दमन से रौंदी गई नारियों के सम्मान के लिए
या गरीबों, भूखों, नंगों के हक के लिए
तुम हथियार उठाते
(अपनी झूठी शान या सिर्फ आखेट के शोख के लिए हथियार उठाना ही वीरता है. ??)

ओ मेरे पिता
मैं सह लेता सब ताने ये
कि तुम्हारे पिताने जातिघात किया,
या तुम्हारा पिता धर्म भ्रष्ट था
ऐयाश था....
ये सब सून कर मैं और ज्यादा अपना सीना फुलाता

और मेरे प्रिय पिता
मैं गर्व से अपने दोस्तों बताता
वो देखो उपर स्वेत बर्फीले पहाड पर
भगत और मार्क्स से थोडा नीचे
गांधी और बुद्ध से चार कदम पीछे ही सही
पर है उसी रास्ते मेरा पिता..
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मैं प्रियतमा के थन से तन पी रहा था


दरवाजे से अंदर आई खुरदरी चमकीली धूप
घट, शीतल छांव
उलटे पैर लटक गई छत से
अदृश्य के आरपार बह रही थी बेरंग हवा

भीतर एक अलसाई मुस्कान
सुबह को सहलाने लालायित थी....
गरम थी प्रियतमा के जिस्म सी
अध नंगे बदन पर टिकी चादर

खिड़की बाहर बहार आई थी
जुई के फूलों की भीगी खुश्बू खा रही थी तितलियाँ
मोरनी रिझा रही थी मीठी आवाज से नर को

सुलग रही थी
रीड की हड्डी के पास से गुजरने वाली मुख्य धमनी
उष्मा से लद्दोलद सांसें
बेख्याली में छोड रही प्रदुषित कार्बन डाइऑक्साइड

और याद आ गया.....
अगले साल इसी दिन
सात बजकर सोलह मिनट पर
मैं प्रियतमा के थन से तन पी रहा था...
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