Sunday 29 November 2015

मेरे घर पर गीध बैठा है और दूसरी कविताएँ

 मेरे घर पर गीध बैठा है


दो दिनों से दिवारें कोमा में थी
अब ठंडी होकर जम सी गई है
कल तक सुर्ख थी पर अब पीली हो गई है
ऐसे धडकती थी कुछ दिनों पहले
कि जैसे धडकता है दिल सोलह साल की लडकी का
पहली बार प्यार होने पर...

खिडकीयों के बहे थे आंसू
जब अगले शुक्रवार को लाल बुलबुल बतियाने आया था
अभी हाल संजू गिलहरी खिडकी पर खडी खडी रो रही है
और दरवाजे से दौड कर आया डीके डॉगी
भौंचक, भौंकता, रीरीयाता हुआ...
दरवाजे से बह कर बहार जाता खून अब थम गया है

छत की नजरें आसमां में टिकी की टिकी रह गई है
हवा हो गए हैं सारे ख्वाब
और रंग डूब गए हैं अंधेरे के गर्त में
जो धहाड़ कर जंतुओं का शिकार करती थी कभी
वो छिपकली छत से छूट गई हैं आज

चैन से सो गए फर्श पर कान सटाया मैंने
आखिरी विदाई गीत गा रही थी जमीं
अभी अभी मैंने हाथ लगाकर जांचा
और  मृत घोषित किया घर को........

बाहर आकर देखा
मेरे घर पर गीध बैठा है...

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कारावास के काले स्याह पत्थरों
तुम केवल मेरी देह को कैद कर पाओगे
मेरे आत्मबल, मेरे ख्वाबों, मेरे विचारों को
कैसे कैद कर पाओगे.??

मेरी आजादी को कुचलना चाहते ओ सत्तादिशो
मेरे आत्मविश्वास की गदाएं
तुम्हारे कारावासों को मलबे के ढेर में बदल देंगी

मेरे ख्वाब
तुम्हारे क्रूर दमन को
सुलगती अग्न ज्वालाओं में फेंक देंगे

मेरे विचार
तुम्हारी सरमुखत्यार शाही को
जूतों की लोखंडी ऐडीयों से कुचल देंगे

फिर जब मैं आजाद हो जाउंगा
तो अपने देश के बच्चों को
शहीदों की कविताएँ सुनाऊंगा..
और बताउंगा उन्हें
कि अपनी आजादी से मूल्यवान, महत्वपूर्ण और कुछ नहीं

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महलों की दिवार दिवार
रंगी हुई है
कारीगरों के लाल खुन से

फैक्टरियों की चिमनियां
धुआँ उगल रही है
मजदूरों का
जिस्म जला जलाकर

भोजन की थाली थाली में
सुंगध है
किसानों के भीगे पसीने की

फिर भी
सबकी थाली सजाने वाले
किसान की थाली खाली है

शहर, गांव भर के मकां, महल बनाने वाले
कारीगर के सर पर छत तक नहीं

मीलों में से मजदूर के खुरदरे हाथों से बने मुलायम कपडे
कभी उसके बदन नहीं पहुँचे

किसान और कितना दूर है रोटी से.?
कारीगर के सर और छत के बीच और कितना फासला है. ?
मजदूर कफन से पहले क्या कभी ढक पायेगा अपना देह. ?
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