Monday 30 November 2015

ग्वॅनेड़ और दुसरी कविताएँ

ग्वॅनेड़


ग्वॅनेड़ है एक काली लडकी पीले दांत वाली
पीती रहती है चाय पर चाय कैन्टीन के बाहर
ग्वॅनेड़ अंगडाई लेती है तो जिंदा हो जाती है
पुरी कच्छ यूनिवर्सटी

यूनिवर्सटी होस्टल के दुसरे मंझले के तीसरे कमरे में
रातभर  रहती है अकेली
ग्वॅनेड़ नौ दिन पहले न्हाई होगी
और शायद बारा दिनों से ब्रश किये बिना है
उससे आती पसीने की खुश्बू और डियोडंरट की बदबू
बयां कर देती है सब कुछ

सफेद जुराब पर पहनती हैं काली चंपल ग्वॅनेड़
लगाती है नीले झुमखे और छोटी बिंदी अक्सर
बडे नाखून से खुरेदती है पूराने जख्म
और देख कर मेरी तरफ थुंक देती हैं
गुस्से से चुंबन की यादें

कभी कभी रोती भी होगी बंद कमरे में छुप छुपकर.........
जब याद आती होगी पहले प्यार की
और तब भी रोती होगी
जब रात को चादर की सिलवटें चुभती होगी सीने में

गुनगुनाती रहती हैं ग्वॅनेड़ पुरा दिन
"आई एम बार्बी गर्ल..... इन ध् बार्बी वर्ल्ड...."
और जिष्म पर चुभती नजरों से ईस तरह किनारा करती है
जैसे शिकारी को देख हिरण का वन छोड जाना

काली केपरी को घुटने से भी उपर सरका कर
अपनी काली लिसी जांदो से
नापती है तापमान समाज का
और सुर्ख जांदो की गरमी से पिघल कर बह गए मर्दों से
अपने पैर और जांदे धो लेती है ग्वॅनेड़ हँसकर
क्लीवेज की दरार पर टिकी नजरों से
सूंघ लेती है स्वास्थ्य समाज का

बंजर बुड्ढो को हरा कर देती है आंख मारकर
और सोती है रातभर किसी निकम्मे सन्नाटे के साथ
पूछती है अपने से कि, "मैं गंदी लडकी हुं...??"
जवाब जाने बिना देख लेती है जमाने की तरफ
फिर उसे सवाल नहीं सताता

हर सुबह उठकर एक नजर डालती है आईने पर ग्वॅनेड़
टीशर्ट निकाल कर आईने में झांकती है अपना पेट
और सवालिया नजर से दैखती है की
किसी नाजायज बीज को बोया तो नहीं अपने खेत में.?

आवारा लडकों को मिडल फिंगर दिखा कर
अंग्रेजी में जोर जोर से देती है गालियाँ,
फिर अचानक रो देती है ग्वॅनेड़

जब मैंने यूनिवर्सीटी की छत पर चढकर
जोर से पुकारा था, "ग्वॅनेड़..... ग्वॅनेड़....."
पूरे शहर में शोर मच गया था
और दौड कर बाहर आई ग्वॅनेड़
जोर जोर से हंस रही थी

यूनिवर्सीटी की हर दिवार पर दर्ज है
उसकी वोह हँसी आज तक
और यूनिवर्सीटी के नीम के पैड पर बैठा काला कौआ
आज भी चिल्लाते रहता है,
"ग्वॅनेड़..... ग्वॅनेड़....."

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रिक्तता का जश्न


रिक्तता को रिक्त ही रहने दो
रिक्त हुए ह्रदय में
कुछ भी भरो मत
अब बोझ उठता नहीं बच्चे से
कि मेरे अंदर का बच्चा अब डरता है

बस,  अब रिक्तता का जश्न मनाने दो
अपने अंतर से मिलने दो
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तुं परिंदा आसमानी


टुटे पंख जुड जाएंगें
तु हौसला बुलंद रख
आज गिरा है जमीं पर
तु नजर आसमां पर रख

फिर से घोसला बनेगा
फिर  से  घर  बसेगा
पता पता झूम उठेगा
और सारा बन साथ खेलेगा

तु दिखा अपनी झलक
जरा तबीयत से पंख झटक
सीने  में  भर  दम  पुरा
फिर होगा मुठ्ठी में फलक

तु  परिंदा  आसमानी
फिर  कैसी  हैरानी..?

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