Sunday 29 November 2015

न्याय और दुसरी कविताएँ

न्याय


शाम की मांग में सिंदूर भरके
सूर्य रात के साथ संभोग करने चला गया
और शाम के ससुर काले अंधेरे ने
धृतराष्ट्र की भांति आंखें मूंद ली...

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ससुर काले अंधेरे ने
नई नवेली ब्याहकर आई बहू सुबह को
चुपके से चूम लिया....
पुत्र दिन सब अनदेखा करके
अच्छे लडके की तरह काम पर चला गया
तो सुबह ने धूप में जलकर आत्महत्या कर ली....

और अब गांव के पंचों ने फैसला दिया है
मनचला चांद दोषी है
और सजा के तौर पर हर महीने
अमावस्या के दिन उसके मुँह पर कालिक पोता जायेगा।

बोलो पंच परमेश्वर की
जय.........................

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सेनापति सब्र करो


सेनापति सब्र करो... सब्र करो...
किस किस का कोर्ट मार्शल करायोंगे
कितनो को कोसोंगे
तुम्हारा आदेश मानने वाले सैनिक नहीं है ये
जो तुम्हारे कहने पर संवेदनाहीन होकर किसी पर भी गोलियाँ धागेंगे
ये एक लोकतांत्रिक देश के स्वतंत्र लोग हैं
जिनकी कुछ संवेदनाएं होती हैं, वेदनाएं होती है..
संवेदनाओं को शूली पर चढाओगे
तो देश मर जायेगा
सेनापति.. किसी मरे हुए देश को सेना की जरुर नहीं होती

सेनापति अपनी आजाद आवाम का सम्मान करो
अपने देश की आजाद आवाज को दबाओ मत
उसे सराहो सेनापति
उनकी संवेदनाओं का ख्याल करो..

ये जो आवाम है न सेनापति
अगर गालियों पर उतर आई
तो तुम्हारी सेना की गोलियां कम पड जायेगी
सेनापति उन्हें उकसाओ मत
सेनापति सब्र करो... सब्र करो...

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पुश्तैनी प्यार


सहजता से स्वीकार कर लिया उसने
कि वो सेक्स के लिए सहज है
और काफी उत्सुक भी
बिस्तर पर दांवपेंच, दमखम दिखाने को
(क्योंकि ऐसी स्वीकृति जताना जरूरी था,
अन्यथा उसे ढीला मान लिया जायेगा...)

काफी देर चुप रहने के बाद
होठों तक आये थूक को गले से नीचे घटकते घटकते
उसने झिझकते हुए अपना सर हिलाया
कि हाँ सेक्स करने में उसे रुचि नहीं है
और बिस्तर पर बेपर्दा होने में उसे काफी असहजता होती है
(यदि वो ऐसा न कहती, करती
तो उसे चालू कहकर चिन्हित किया जायेगा...)

और एक दिन फिर
बंद कमरे के
चंद प्रकाश में
न चालू आंखों ने इज़ारबंद खोलने की हाँ कही
न ढीले हाथों ने ना सुनने  पर रुकने की ठानी

उस बंद कमरे में
न कभी अच्छी बारिश हुई
न कभी झील छलकी...

हर रात के अंतिम पहर पर
स्वप्नदोषी बिजलियाँ चमकती
आहहहह... आहहहह.... गरजती
और चार दिवारों में कैद रह जाती

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