Sunday 29 November 2015

एक काव्य- ओ किसान

ओ किसान


ओ किसान
उठो, और ललकार करो
अपना हल उठाओ
अपना बल दिखाओ
छीनने आऐ है तेरी जमीं
कुछ शाहुकार, हुक्मरान
चलो, उनका प्रतिकार करो

बहला फुसलाकर
या फिर धमकाकर
हथियाना चाहते हैं
वोह तेरे हरे भरे खेत

फिर वोह
तेरे खेतों का सीना चीरकर
वहां लगाएंगे बडी बडी फैक्टरीयाँ
और कैद कर लेंगे हरियाली सारी
सिमेंट कंक्रीट की दिवारों में

ओ किसान
वोह छीनने आऐ है
तेरा निवाला
तेरे बच्चों का भविष्य
तेरे अन्नदाता होने की पहचान
वोह ले लेना चाहते हैं
तेरे पास सुरक्षित रखी हुई हरभरी
हमारे देशकी स्वस्थ सांस

वोह तेरे मेहनती हाथों से
चुरा लेना चाहते हैं काम
कर देना चाहते हैं तुझे बेकार
और फिर तेरी श्रमशक्ति को
डुबा दिया जायेगा शर्म में

ओ किसान
कह दो चिल्ला चिल्लाकर
इन शाहुकारो और सत्ताधीशों को
कि हम नहीं चाहते
हमारे धान्य से बदबू आऐ मानव खून की
और मिट जाए अन्न से
हमारे पसीने की खुश्बू
नहीं चाहते कि
बदल जाए स्वाद इनसानों की थाली का

और कह दो कि
हमारी कुदालों से डरो तुम
हम नहीं चाहते कि हमारे खेतों में मानव खाद
और नहीं चाहते कि
हम किसान से बन जाए हत्यारे

ओ किसान
हाथ में कसके थाम लो तुम्हारें गोफन की डोरी
और अपनी गोफन से
उछाल फेंको कोसो दूर समंदर में
उनके ताज, तख्त
अपने मेहनती मजबूत हाथों से
मसल दो उनके नामुराद इरादे

और
उनकी लालची आंखों से
छिन लो सौदेबाजी के ख्वाब
और अपने धान से
भर दो मुंह उनके
तब तक
जब तक ऊब ना जाए
वोह अपनी गिधडभप्कीओ से
कि हारकर
फिर कभी ना करें अपनी कुदृष्टि
तुम्हारे खेतों पर, तुम्हारी जमीं पर

ओ वनवासी
चडाओ अपने धनुष पर बाण
छीन लो उनकी साँस और रूह तक
जो धोखे से तेरे झरने चुराना चाहते हैं
अपने भालों को पिरो दो
उनकी पापी देह में
जो तीड़ बनकर तेरे जंगलो को निगल जाना चाहते हैं

अपनी हुंकार से
खौफ पैदा करो
कि फिर वोह तुम्हारी जमीं की तरफ
बुरी दृष्टि से देखे तक नहीं
और तुम काट दो उस हर हाथ को
जो तेरे पहाड़ों से
महंगा खनिज चुराने आगे बढता है

ओ चरवाहे
अपने कंधे पर रखी लाठी पर पकड जमाओ
और तोड दो मुंह उन जानवरों का
जिसने तेरे पशुओं के हिस्से की
घास खा ली
उन सबकी कब्रें खोद दो
जिसने तेरे
हरे घास से लहराते मैदान खोद दिये

डूबो दो तुम उनको
जो सुखा देना चाहते हैं
तेरी नदियों और झीलों को
और फिर
उन दुष्टों की कब्रों पर तुम सुनाओ
इनसानियत के गीत, प्रकृति का संगीत
ताकि उनमें मरा हुआ इंसान कभी जिंदा हो सके

ओ किसान, चरवाहे, वनवासी
उठो,  अपने अधिकार मांगो
आततायियों का संहार करो......
उठो, मिट्टी का जयजयकार करो.....

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