Sunday 29 November 2015

चार प्रेम कविताएं

रात के प्रथम पहर में
मैं तुम्हारी ऐडीयां चूमता हूँ

रात के मध्यम पहर में
मैं तुम्हारा पेट चूमता हूँ

रात के अंतिम पहर में
मैं तुम्हारे होठ चूमता हूँ

मैं हर रात को बस ऐसे सोता हूँ

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उसने कहा
जब तुम अपनी खुरदरी उंगलियों से
मेरी पीठ को छूते हो
मैं गुलाबी हो जाती हूँ

मैंने भी कह दिया
जब तुम मेरे सूखे होंठों पर होठ रखती हो
तब मैं हरा हो जाता हूँ

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ओ मृदुबाला


ओ मृदुबाला.....
सुवर्ण महल में कैद सुभांगी...
उड जाओ पिंजरे से
और आजाद हो जाओ

आओ लाल चावल के मुल्क में
चारा चुगने
जहां सिंधु तट की कुंजे
तेरे सुर से सुर मिलाऐंगी
सा  रे  गा  मा  पा..... सा  रे  गा  मा  पा....

और आना
थोडे दूर दक्षिण में सीमा के उस पार
अरब सागर और सिरक्रिक के बीच जो डेल्टा है
चिकारा अभ्यारण्य...
यहां की खुबसूरत हिरनों के साथ
मृंदग पर कथक के ताल मिलाना
त थै, ता थै....  त थै, ता थै.... तिग्धादिग्दी थै.....

और आना वहाँ
बिलकुल पास में जो किल्ला है
लखपत...
जहाँ तेरे नुर से मिले ऐसा नुर रहता है
हाँ,  वहाँ रहती है बार्बरादेवी
तुम दोनों अपने नुर को वहां की फलदायी जमीन में बो देना
ताकि जमीं से फुट फुट कर उग निकले बार्बरेय

ओ मृदुबाला....
बंगाल की खाडी की मत्स्यकन्या.....
उगते सूरज के पीछे पीछे चली आना
जहाँ सूरज डूबता है वहाँ
सिंधु और अरब सागर के संगम पर
एक बार्बरेय डेरा डाले बैठा है
इंतजार कर रहा है
वो मत्स्यकन्याओं आशिक हैं...

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तुम एक जख्म दो


तुम एक जख्म दो
फिर जख्म पर
नमक छिडको..
हाँ,  कभी कभार मिरची भी चलेगी

तुम मुझमें आग लगाओ
हवा बनकर आग को फैलने दो
आग में थोडा धी डालों...
जलन अंग अंग में फैलनी तो चाहिए न..!!

तुम ऐसा हर दिन करो
मैं नहीं रोकूंगा
सिर्फ तुम आओ प्रिय
बस तुम ऐसा हररोज करने आओ......

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