Sunday 29 November 2015

पांच कविताएँ

सिर्फ किसी स्त्री को मत देखना



सिर्फ स्त्री की आँख मत देखना
आंखों में छाया धुआँ देखना    
आंखों में छिपी आग देखना

सिर्फ स्त्री का चेहरा मत देखना
चेहरे पर बिखरी बूंदें देखना
चेहरे पर चमकती बिजलियाँ देखना

सिर्फ किसी स्त्री को मत देखना
स्त्री में पल रही क्रांति देखना
स्त्री में जल रहा विद्रोह देखना
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बच्चा, माँ और बाप


बच्चा रोता है
माँ जागती है
और बाप सोता है

बच्चा भूखा है
माँ खिलाती है
और बाप देखता है

बच्चा बिमार है
माँ दवाई दे रही है
सीने से लगाये बैठी है
बाप भी बहुत टेंशन ले रहा है
जाम होठों को ही लगाये बैठा है

बाप का ऐसा होना आम-सी बात है
क्योंकि बाप आम सा होता है
और माँ का वैसा होना भी 'आम' सी बात है
क्योंकि माँ 'आम' सी होती है

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हमारी यारी


हमारी यारी में
घर की दीवारें लाल हो गई रंग कर
और किचन के बरतनों से
बिथोवन बहार आ रहा है
छत में लटक रही है नखानारी झील
और झील में तैर रही है रंगबिरंगी मछलियाँ

आंगन में  बैठा पीला बुलबुल
शोर मचा रहा है
कि पेड़ पर किसी और को बसेरा करने नहीं देगा

और सुना है कि
राजपूत राजा के सरोवर के रजवाड़ी हंसोने
मोती का चारा नहीं चुगा आज.....!!!

और डीडी उर्दू पर शुक्र शनि को कहानी सुनायेंगा कोई
की नारी-जवसा की यारी ऐसी वैसी कैसी होती है...!!

और सुनो पश्चिमी हवाओं
सागरमाथा पर्वत की चोटी पर दर्ज है हमारी यारी
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आंखों में कैद हैं इश्क
इश्क में कैद हैं कविता
कविता में कैद हूँ मैं
मुझमें बस्ती हो तुम
तुम में बहती है नदी

नदी, आंखें, मैं, तुम सब इश्क है...
सब कविता है...
सब कैद है....
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घर है, गांव है, गली है
बस ऐक पता नहीं है ऐसा
जहाँ पहूँचे प्रियजनों के पत्र

नाम है,  पहचान है,
और बदनामी भी बहुत  है
काम नहीं है
दाम नहीं है

कागज हैं,  कलम है,
पत्र पत्रिकाओं में पहुंच भी हैं
पास शब्द नहीं हैं सच्चे
और न ऐसी कविताएँ जिससे लोग बोल उठे;
"बहुत अच्छे,  बहुत अच्छे......"

समझ है,  समय है,
और सज्जनता भी है ठीक ठीक
नहीं है तो बस
बदतमीजी, बेबाकी, बगावत
और बोतल भर पी कर टुन होने का हुनर...

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